(राग जैतकल्याण-ताल त्रिताल)
दभ-मान-मद-पद-यश-वैभवका जो करते मनसे त्याग।
दुःखयोनि इन्द्रिय-भोगोंमें भूल न रखते रञ्चक राग॥
काम-क्रोध-लोभसे विरहित, दुराचार-दुर्मतिसे हीन।
ममता-अहंकार-भय-वर्जित, द्रोह-वैर-हिंसादि-विहीन॥
‘चमत्कार’-’आश्चर्य’-’सिद्धि’ दिखलानेकी न भावना लेश।
नहीं वासना तनिक ‘आत्मपूजन’ की, धर ‘विरक्त का वेश’॥
सरल अकृत्रिम सादा जीवन दैवीसपद्-युक्त विशुद्ध।
नहीं एक भी क्रिया-चेष्टा देह-चितकी शास्त्र-विरुद्ध॥
शम-दम-त्याग-तितिक्षा-समता-सत्य-अहिंसा-सेवाभाव ।
शुचिता-तप-सहिष्णुता-करुणा-विनय-ईशचिन्तन का चाव॥
प्राणिमात्रमें देख नित्य प्रभुको, करते सबका समान।
सबका सुख-हित-साधन करते, पावन परम धर्म यह मान॥
अथवा सबमें देख निजात्मा, आत्मामें सब भूत निहार।
आत्मोपम सुख-दुःख सभीके जान सदा करते व्यवहार॥
ऐसे जो आदर्श परम मानव हैं, वे ही ‘सच्चे संत’।
उनका सेवन-संग सहज कर देता भव-बन्धनका अन्त॥