भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भोग अनित्य, अपूर्ण सदा हैं / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:31, 12 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(राग तोड़ी-ताल कहरवा)
 
भोग अनित्य, अपूर्ण सदा हैं, क्षणभंगुर, दुःखोंकी खान।
हैं प्रत्यक्ष देखते, तो भी उन्हें चाहते सुखमय मान॥
नित्य मनोरथ नये-नये हम करते, रचते विविध उपाय।
मिलते नहीं किंञ्तु मनचाहे, हो रहते निराश, निरुपाय॥
मिलते तो फिर अधिक प्राप्त करनेकी मनमें उठती चाह।
इसी बीच वे मिले हु‌ए भी चल देते विनाशकी राह॥
रहता यह विनाशका भय नित, छा जाता विनाशपर शोक।
इन असं?य भय-शोकोंसे है भरा सदा भोगोंका लोक॥
‘भोगोंमें सुख है’-यह रहती जबतक मनमें छायी भ्रान्ति।
तबतक नये-नये दुख आते, कभी न मिल सकती सुख-शान्ति॥
जो हम स्थिर सुख-शान्ति चाहते तो भोगोंकी आशा त्याग-
परम सुहृद आनन्दरूप प्रभुको ही भजें सहित अनुराग॥
समझें एक उन्हींको ‘मेरा’, उनके ही हो रहें अनन्य।
उनके एक पुण्य आश्रयसे जीवन सफल, परम हो धन्य॥
यही चरम फल है जीवनका, यही साध्य है एक पुनीत।
करें इसीके लिये प्रार्थना प्रभु-चरणोंमें नित्य विनीत॥