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घोर अविद्या, जो मानवको / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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(राग वागेश्री-ताल कहरवा)
घोर अविद्या, जो मानव को कर दे पापोंमें संलग्र।
असुर-भाव-भर, रखे त्याज्य जो अर्थ-काममें नित्य निमग्र॥
वह भी निश्चय विषम अविद्या, जो मनमें भरकर अज्ञान।
वैध-भोग-रत रखे, भुला प्रभुको, जो उपजाकर अभिमान॥
विद्या वह, जो दैवी-सपद्से भर दे, कर प्रभुका दास।
सदा रखे प्रभु-सेवामें जो, मिटा द्वन्द्व-सारे अभिलाष॥