भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मत संकल्प बिसारो / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:21, 16 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महावीर प्रसाद 'मधुप' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पथ की पीड़ा से अकुला कर, राही मत संकल्प बिसारो।
चाह अमिट है दिन में तो क़दमों से मंज़िल दूर नहीं है॥

सुख के अभिलाषी मानव को पहले दुख सहना पड़ता है।
मधु-रस के लोभी भँवरों को काँटों में रहना पड़ता है।
सागर की उत्तुंग तरंगों से डर कर पतवार न छोड़ो।
साहस है तो माँझी! फिर नौका से साहिल दूर नहीं है।

पथ की पीड़ा से अकुला कर, राही मत संकल्प बिसारो।
चाह अमिट है दिन में तो क़दमों से मंज़िल दूर नहीं है॥

अरमानों की सूखी फुलवारी पर पतझर का पहरा है।
लगा न पाला मरहम कोई मन का घाव बहुत गहरा है।
लेकिन फिर भी मीत! कभी मत आशा का संगीत भुलाओ।
और अधिक अब तेरे सुख सपनों की महफिल दूर नहीं है।

पथ की पीड़ा से अकुला कर, राही मत संकल्प बिसारो।
चाह अमिट है दिन में तो क़दमों से मंज़िल दूर नहीं है॥

जीवन-रण में हार जीत का चला सदा से क्रम आता है।
सैनिक वही पराजित होता जो चोटों से घबराता है।
इस परिवर्तनशील समय का नहीं चिरस्थायी क्षण कोई।
अभी निशा है, लेकिन कल का दिन भी स्वर्णिल दूर नहीं है।

पथ की पीड़ा से अकुला कर, राही मत संकल्प बिसारो।
चाह अमिट है दिन में तो क़दमों से मंज़िल दूर नहीं है॥

झंझा के झोंकों में अविरल जल कर दीप सुयश है पाता।
तप-तप कर जलती ज्वाला में स्वर्ण सदा कुन्दन कहलाता।
विश्व-गगन के विकल पखेरू! तप्त लुओं से मत घबराओ।
महक उठेंगी साँसें पल में, अब मलयानिल दूर नहीं है।

पथ की पीड़ा से अकुला कर, राही मत संकल्प बिसारो।
चाह अमिट है दिन में तो क़दमों से मंज़िल दूर नहीं है॥