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वीर पिता का वीर पुत्र / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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सैनिक दल था एकत्र हुआ निज उत्सव एक मनाने को।
चरणों में अमर शहीरों के श्रद्धा के सुमन चढ़ाने को॥

वह मातृभूमि का लाल कि जिससे ऊँचा माँ का भाल हुआ।
था भारत-पाक-समर में जो मर, अमर वीर महिलाल हुआ॥

उसका नन्हा-सा बेटा भी उस समारोह में आया था।
छह बार कि जिसके जीवन में अब तक वसंत खिल पाया था॥

वीरोचित रक्त लालिमा से मुख-मण्डल था जगमगा हुआ।
स्वर्गीय पिता का ‘वीर चक्र’ था पदक वक्ष पर लगा हुआ॥

देखा सबने उस बालक को, आ गया याद वह बलिदानी।
वीरत्व उरों में उमड़ पड़ा, आँखों में भर आया पानी॥

अध्यक्ष उठा निज आसन से, शिशु को गोदी में उठा लिया।
मुख चूमा हाथ रखा सिर पर, छाती से उसको लगा लिया॥

पाकर के प्यार भरा चुम्बन, झट शान्त सरल मन डोल उठा।
वह वीर पिता का वीर पुत्र तुतली वाणी में बोल उठा॥

‘देखना बड़ा होकर के मैं, क्या करतब कर दिखलाऊँगा।
जो शत्रु पिता का है मेरे उससे प्रतिशोध चुकाऊँगा॥

सैनिक बन कर समरांगण में, मैं दो-दो हाथ दूँगा।
गिन गिन कर एक एक ऋपु से बलिदानों का बदला लूँगा॥

नापाक ‘पाक’ का दुनिया से मैं नाम मिटा कर छोडूँगा।
रावलपिंडी में भारत का झंडा लहरा कर छोडूँगा॥

जिसने मेरी भारत माँ का अपमान किया, फल पायेगा।
सीमा की ओर बढ़ेगा जो, वह जीवित लौट न जायेगा’॥

सुन कर बालक के वचनों को मन मुग्ध हुआ हर सेनानी।
अनुभव कर अभिनव गौरव का, हर मुख से गूँज उठी वाणी॥

‘बच्चे भी हों जिस भारत के निज देशप्रेम में उन्मादी।
किस में क्षमता है छीन सके जो उस भारत की आज़ादी’॥