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सरल, सहज और निष्कलंक ग़ज़लें / कुंअर बेचैन

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भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम डॉ. कलाम ने सपनों के बारे में एक बहुत ही महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। उन्होंने कहा है कि सपने वे नहीं होते जो सोते हुए देखे जाते हैं, वरन् सपने वे होते हैं जो आपको सोने न दें। कविता भी एक ऐसा ही सपना है, जिसे यदि किसी ने देख लिया तो यह सपना भी उसे सोने नहीं देता। महावीर प्रसाद ‘मधुप’ जी के इस ग़जल संग्रह की ग़ज़लें भी उनके जागे हुए सपनों की शब्दिक अभिव्यक्ति है, जो उन्हें तो प्रफुल्लित करती ही है, साथ ही जो भी इस शाब्दिक अभिव्यक्ति से जूड़ता है, चमत्कृत हो उठता है और सोचने लगता है कि यह तो वही बात है जो हम कहना चाहते हैं।

आचार्यों और समालोचकों ने इसी सोच को कविता और कवि की सफलता माना है। मधुप जी ने अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए सारी विधाओं में से ग़ज़ल को ही चुना क्योंकि वे जानते हैं कि ग़ज़ल के प्रत्येक शेर में एक नया सपना देखा जा सकता है और यह सपना औरों को भी सरलता से दिखाया जा सकता है। छोटे-छोटे शेरों में छोटे-छोटे सपने। लेकिन छोटे होकर भी बड़ी बड़ी ऊंचाइयों को छूने वाले। बड़ी-बड़ी गहराइयों में उतरने और उतारने वाले। बिन्दु मेंस ागर का काम करने वाले। नन्हें से दीपक द्वारा उजाले को विस्तार देने वाले। क्योंकि कवि मधुप जी की दृष्टि में-

सूरज से छोटा न कहो उस दीपका को

पी जाता जो आँगन का सारा तम है

मधुप जी की ग़ज़लों मे व्यक्तिगत अनुभवों और अनुभूतियों की ऐसी गूंज है जो दूर तक जाती है और दूसरों के हृदय को भी स्पांदित करती है। यही नहीं उन्होने एक मनोवैज्ञानिक की तरह दूसरों के भी मन में उतरकर उनकी मनस्थितियों को शब्दबद्ध किया है। उनके दुख-सुख को जांचा परखा है। चाहे वह आर्थिक परिवेश हो या धार्मिक और चाहे वह राजनीतिक परिदृश्य हो या साहित्यिक, सभी पर कुछ न कुछ कहकर उन्होंने एक जागरूक साहित्यकार की चिंता को व्यक्त किया है। देश और सम्पूर्ण विश्व पर आए हुए संकटों की ओर भी उन्होंने ध्यान दिया है और ध्यान दिलाया है।

वे मानवता के पुजारी हैं इसलिए वे अपनी ग़ज़लों के माध्यम से मानव को मानव बने रहने का संदेश देते हैं।

मधुप जी ग़ज़लों की भाषा भावों की अनुगामिनी है। उन्होंने ग़ज़ल के विषय को प्रतिपादित करने वाले मुहावरे को पहचानकर भाषा-प्रयोग किए हैं। उनकी ग़ज़लों में जहां बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है वहीं कहीं-कहीं संस्कृत की तत्सम शब्दावली और ठेठ उर्दू का प्रयोग भी किया है। यही नहीं उन्होंने राजस्थानी और हरियाणवी के शब्दों को भी ग़ज़ल में बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ पिरोया है। वे भाषा के प्रत्येक माध्यम को महत्व देते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण है कवि की बात का औरों तक पहुँचना। अब चाहे उस माध्यम में अहमक़, आकिल, कमज़र्फ़, बज़्म जैसे उर्दू के अलफ़ाज़ हों या उर्दू के वाक्यांशों में प्रयुक्त इज़ाफ़त या समास-प्रधानता का प्रयोग हो जैसे ‘दीवाना-ए-मंज़िल’, ‘तूफानू-मुक़ाबिल’ आदि। उसमें अन्तर्धान, विषपान, विप्लव-गान जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द हों या ‘कांटा-बनी कुसुम कलियोें को/ भावुक मन में खलते देखा’ शेर में ‘खलता’ जैसा देशज शब्द हो।

उनके इस संग्रह में कुछ ग़ज़लें हरियाणवी भी हैं। फक्कड़पन को व्यक्त करने वाले उनके कुछ शेर देखें-

रमते राम फकीरां का दुनिया में ठौर-ठिकाणा के

आपस मैं मन मिलैं नहीं तो लिणा और मिलाणा के

सोच-समझ के काम करै तो उसका फल मिट्ठा हो सै

बिना विचारे करणी कर के फेर पाछै पछताणा के

‘मधुप’ जगाणा सुत्यां नै तो बात बड़ी मामूली सै

जगा सकै ना मुदर््यां नै वो राग किसा, वो गाणा के

इन ग़ज़ल कहने वालों में अधिकतर ऐसे ग़ज़लकार भी हैं जिन्हें ग़ज़ल की बहरों का ज्ञान नहीं है। मुझे यह कहते हुए हर्ष और संतोष का अनुभव हो रहा है कि मधुप जी को छंदों का पूर्ण ज्ञान है। उन्होंने छोटी और बड़ी बहरों में ग़ज़ल कहकर ग़ज़ल के मिज़ाज को जिंदा रखा है। उनकी ग़ज़लों मे अधिकतर जिन बहरों का इस्तेमाल हुआ है उनमें बहरे-मुतदारीक और बहरे रमल प्रमुख हैं। बहर की दृष्टि से इतनी परपक्विता कम ही ग़ज़ल-संग्रहों में मिलती है। साथ ही इनकी ग़ज़लों में ग़ज़लीयत और तसब्बुफ दोनों का मणिकांचन संयोग है।

ग़ज़लों के संदर्भ में बात करते हुए ग़ज़ल की एक और बड़ी बात मानी गई है कि उसमें ग़ज़ब की सूक्तिमयता होती है। ठीक ऐसी ही जैसी रहीमदास, कबीरदास और बिहारी लाल के दोहों में है। मज़े की बात यह है कि मधुप जी के ग़ज़लों में एक ओर रहीमदास के दोहों जैसा जीवनानुभाव और संदेश है तो दूसरी ओर कबीरदास के दोहों जैसी आध्यात्मिकता, समाज-सुधार की भावना सधुक्कड़ीपन, साफ़ागोई और निर्भीकता भी है। बिहारी के दोहों में जो सामासिकता और गागर में सागर भरने का कौशल है वह भी इनकी ग़ज़लों में मिलता है। इस दृष्टि से मधुप जी एक सम्पूर्ण ग़ज़लकार हैं और इनकी यह कृति इज़ाफ़ा कर रही है ऐसा विश्वास पाठकों को देंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं एक सुन्दर, सारगर्भित, निष्कलंक और अपनी सहजता और सरलता के कारण प्रत्येक के दिल में उतरने वाली ग़ज़लों के रचयिता श्री मधुप जी की उनकी सइ कृति के प्रकाशनोत्सव पर यह कामना और आशा करता हूँ कि उनका शेष अप्रकाशित काव्य-संसार भी यथाशीघ्र सुव्यवस्थित तथा संकलित होकर पाठकों को उपलब्ध हो सकेगा। मैं उनके ही एक शेर का उदाहरण पेश करते हुए अपनी वाणी को अभी विराम न देकर अर्धविराम देता हूं क्योंकि मुझे मधुप जी की आने वाली कृतियांे पर भी कुछ न कुछ कहना है। शेर यह है-

शान महफ़िल की तुझसे ‘मधुप’

तेरी ग़ज़लें है दिलकश बड़ी

डॉ कुंअर बेचैन