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ग़म के सहने में भी कुछ अपना मज़ा है तो सही / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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ग़म के सहने में भी कुछ अपना मज़ा है तो सही
मूक नयनों की भी इक अपनी सदा है तो सही

सिर झुकाता हूँ न निज हाथ उठाता हूँ कभी
मेरी नज़रों में नई तर्जे़-अदा है तो सही

देख कर उनके सजल नेत्र यह अहसास हुआ
दिल में पत्थर के भी थोड़ी सी दया है तो सही

आ के महफ़िल में बराबर वे विमुख हमसे रहे
लगता है हमसे उन्हें कोई गिला है तो सही

ख़ुद कहे देती हैं ये नीची निगाहें उनकी
अपनी करनी पे उन्हें खेद हुआ है तो सही

नेकियाँ कीजिए दरिया में समर्पण के लिए
सब के हित कृत्य में अपना भी भला है तो सही

जिसने तूफ़ानों से, संघर्ष किए हैं कितने
अपनी कुटिया में भी, इक ऐसा दिया है तो सही

जब की एकान्त में निन्दक ने टटोला मन को
उसको महसूस हुआ, उसकी ख़ता है तो सही

रस की बरसात ही होती है ग़जलगोई में
इस विद्या में भी ‘मधुप’ लुत्फ़ नया है तो सही।