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एक जैसा हर समय वातावरण होता नहीं / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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एक जैसा हर समय वातावरण होता नहीं
अर्चना के योग्य हर इक आचरण होता नहीं

जूझना कठिनाइयों की बाढ़ से अनिवार्य है
मात्र चिन्तन से सफलता का वरण होता नहीं

मिल सका किसको भला नवनीत मन्थन के बिना
दुख बिना चुपचाप सुख का अवतरण होता नहीं

लाख हो शृंगार नारी के लिए सव व्यर्थ है
पास में यदि शीलता का आभरण होता नहीं

जल रहा हो जब वियोगी मन विरह की आग में
यत्न कितना भी करो पर विस्मरण होता नहीं

व्याकरण के बंधनों में ग्रंथ सारे ही बंधे
प्यार कितना भी करो पर विस्मरण होता नहीं

मैं अकेला ही चलूंगा लक्ष्य के पथ पर अभय
अब किन्हीं क़दमों का मुझसे अनुसरण होता नहीं

नित नए परिधान बदले सभ्यता चाहे कोई
क्या महत्ता लाज का यदि आवरण होता नहीं

तन भले ही मिल सकें पर मन नहीं मिलते कभी
जब तलक है प्रेम रस का संचरण होता नहीं

जो न आँसू की कहानी सुन द्रवित होता ‘मधुप’
वह निरा पाषाण है, अन्तः करण होता नहीं