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‘मधुप’ का बहुआयामी काव्य / कृष्णमित्र

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अभिव्यक्ति के उदात्त पलों में हृदय की अंतरंगता से उपजे भावों में जो संवेदना होगी, उसी में काव्य की श्रेष्ठ पंक्तियांे का उद्भव होगा। धीरे-धीरे यही भाव हमें जिन स्वरूपों में देखने, सुनने या समझने को मिलते हैं, उन्हीं में कविता-कल्याणी के दर्शन होते हैं। उन भावों और विभावों की इस उत्पत्ति में से काव्यगत सच्चाईयों का आभास मिलता है। लक्षणा, व्यंजना और अभिधा केउत्सवी क्षणों में जब व्यक्ति कुछ नया कहने का प्रयास करताहै; उन्हीं क्षणों में व्यक्ति का कवि जन्म लेकर साहित्याकाश में उदय होता है। शायद कवि के लिए प्रकृति ने यही रचनाशीलता रचकर समय के हस्ताक्षर किए हैं।

इन्हीं कुछ उदात्त पलों की अभिव्यक्ति से उद्धत पंक्तियों ने कविवर महावीर प्रसाद ‘मधुप’ के रूप में हमें एक निष्ठावान कवि सौंपा है। श्री मधुप की काव्यगत विशेषताएँ उनके इस काव्य-संकलन में हम देख सकते हैं। मधुप जी से इन पंक्तियों के लेखक का सामीप्य ही उनकी राष्ट्रीयता, सामाजिकता और यथार्थ के धरातल पर खड़े सशक्त कलमकार के दर्शन कराता है। मैंने उन्हंे सुना है, समझा है और उनकी वैयाक्तिक आराधना को समीप से देखा है। मैंने उन्हें सुना है। भिवानी के साहित्य-जगत् में श्री महावीर प्रसाद ‘मधुप’ को श्रेष्ठ साहित्यकार के रूप में जाना जाता रहा है। वे राष्ट्रीय विचाराभिव्यक्ति के एक श्रेष्ठ कवि, गीतकार और रचनाधर्मी थे। उनके जन्मदिन पर जब इतिहास के क्षणों में लौटकर देखते हैं, तो श्री मधुप सरस्वती के अनन्य उपासक और धार्मिक अभिरूचियों के पवित्र रचनाकार स्वीकार किए जाते हैं। भिवानी जनपद को साहित्यकारों से परिचित कराना और उनकी श्रेष्ठ रचनाओं को जन-जन तक पहुँचाने का पवित्र दायित्व वे निभाते रहे थे। सभी व्यक्त भावों का प्रमाण इस संकलन में हम देख सकते हैं। ये काव्य-संग्रह मधुप जी के विचारों की अलंकारयुक्त शंखध्वनि है। शत्-शत् नमन कविता में श्री मधुप ने लिखा है-

जाम शहादत का पीकर जो दुनिया में हो गए अमर।

सौ-सौ बार नमन करता मैं उनको नत-मस्तक होकर।।

इस काव्य-संग्रह में उनके अनेक सुन्दर गीत पठनीय हैं। उनकी समस्त रचनाओं के साथ एकाकार होने के अवसर हमें प्राप्त हो रहे हैं। कवि ने माँ सरस्वती की आराधना के साथ इस संग्रह का प्रारंभ किया है। उनके अन्य पड़ावों में माँ और इसी तरह के गीतों में हम लगातार स्वयं को संकल्पित पाते हैं। मधुप जी ने केवल ओजपूर्ण काव्य ही नहीं लिखा, उन्होंने अन्य अनेक गीतों में भी अपनी कविता को गति प्रदान की है। कवि निरंतर चलने को आतुर है। इसलिए वह कह रहा है-

क़दम बढ़ाते चले चलो! हँसते - गाते चले चलो!

जीवन की राहों में सब पर प्यार लुटाते चे चलो!

मधुप जी ने महर्षि दयानंद पर अत्यंत नई दृष्टि दी है। गांधी के चेलों से अपनी मतभिन्नता अभिव्यक्त की है। गीतों में हुंकार के साथ-साथ अभिसार के भी दर्शन कराए हैं। शारदा के स्तवन में विनम्र अभिव्यक्ति दी है, आदमी को जागते रहने का आह्वान किया है, भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध सच्चे शब्दों में अपनी वेदना प्रदर्शित की है। महावीर प्रसाद ‘मधुप’ के काव्य में छंद हैं, दोहे हैं, छप्पय हैं और उद्बोधन के स्वरों के गीत हैं। तभी तो वह कहते हैं-

मानव जीवन मिला भाग्य सेमत इसको बेकार करो!

छीज रही साँसों की पूंजी कुछ तो सोच-विचार करो!

उनकी श्रेष्ठ कविताओं में अनेक शीर्षकों का उल्लेख किया जा सकता है। कुछ शीर्षक पठनीय हैं जैसे- कैसे वंसत, कैसी होली; मोहन! एक बार फिर आओ; माटी मेरे देश की और देश के पहरेदारों से जैसे शीर्षक। श्री मधुप ने दहेज - दानव पर अपनी सशक्त लेखनी चलाई है। तो महाभारत के पार्थ पर अत्यंत गंभीर कविता लिखी है। प्रतिज्ञा, सेतुबंधन, तुम और मैं, क्षणभंगुर जीवन, और जाने कहाँ गए वो दिन जैसी कविताओं से ये काव्य-संग्रह अत्यंत रोचक और पठनीय बन गया है। अनुभवों के दीर्घ जीवन में श्री मधुप अपने जीवन की सच्चाई से रू-ब-रू- रहे हैं। विश्वास है साहित्य-जगत् उनकेइस काव्य - संग्रह को पर्याप्त उत्साह से स्वीकार करेगा। काव्य-संग्रह अपनी पूर्णता के प्रति सजग है और जन-जन के जीवन में झंकार पैदा करने का माद्दा रखता है। संकलन उपयोगी हो और जन-जन के हृदयों तक पहुँचने - इसके सभी आधार विद्यमान हैं अस्तु!


--कृष्णमित्र