क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
रामराज्य का स्वप्न अभी तक कर पाए साकार नहीं।
क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो तुम इसके हक़दार नहीं।।
वर्षों की इस आज़ादी में ज़रा न सुख की साँस मिली,
सूरज निकल चुका नभ में पर नहीं धरा पर धूप खिली,
कितनी बार तुम्हारा भोली जनता ने विश्वास किया,
दुख पर दुख सह कर भी तुमको शासन का अधिकार दिया,
किन्तु ग़रीबी से कर पाए तुम इसका उद्धार नहीं।
क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो तुम इसके हक़दार नहीं।।
उद्घाटन करते तुम फिरते रहे बैठकर कारों में,
लोगों के उलझाए रक्खा, झूठे दिलकश नारों में,
दीन-दुखी लूटकर बेचारे और अधिक कंगाल हुए,
बने तुम्हारे कृपापात्र जो, वे सब मालामाल हुए,
शाषित पीड़ित मानव को, मिल सका तुम्हारा प्यार नहीं।
क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो तुम इसके हक़दार नहीं।।
कल के निर्धन कुर्सी पाकर बन बैठे धनवान बड़े,
उजड़ गईं झोंपड़ियाँ कितनी, हुए अनेकों महल खड़े
नभचुम्बी प्रासादों में तुम बैठे रंगरलियाँ करते,
तरस रहे दाने-दोन को लोग इधर भूखों मरते,
सच बोलो, क्या तुम्हें सुनाई पड़ता हा-हाकार नहीं।
क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो तुम इसके हक़दार नहीं।।
विफल रही हर नीति तुम्हारी काम तुम्हारे व्यर्थ रहे,
सीमा रक्षा तक भी कर सकने में तुम असमर्थ रहे,
झुलस रही केसर की क्यारी, ख़तरे में आज़ादी है,
भ्रष्टाचार दिनों-दिन बढ़ता, निकट खड़ी बर्बादी है,
लोकतंत्र जर्जर कर डाला, कर पाए उपचार नहीं।
क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो तुम इसके हक़दार नहीं।।
ऋण पर ऋण लेकर स्वदेश की सारी शान मिटा डाली,
औरों के आगे फैलाते फिरते हो झोली खाली,
महंगाई के कारण साधन सुख के सारे दूर हुए,
बिना मौत ही भूख मानव मरने पर मजबूर हुए,
जन-साधारण को दे पाए, जीने का अधिकार नहीं।
क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो तुम इसके हक़दार नहीं।।
मांग करे जो अधिकरों की, वह पाता लाठी-गोली,
गौ-भक्तों, संतों के शोणित से खेली जाती होली,
पुण्यभूमि पर गौ-वध करते, लज्जा तुम्हें न आती है,
उठ कर अब आवाज़ यही नभमंडल से टकराती है।
बहुत होचुका, होने देंगे अब यह पापाचार नहीं।
क्रूर शासको! गद्दी छोड़ो तुम इसके हक़दार नहीं।।