क्षणभंगुर जीवन / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
अलकावलि मंजु सुगंध सनी, बनी नागिन-सी लहराती रही,
अरविन्द से आनन पे मधुपावलि मुग्ध हुई मँडराती रही।
जलदीप शिखा-सी सुदेह सदा, मन प्रेमी पंतग जलाती रही,
अति रूपवती रति-सी रमणी नित मान भरी इठलाती रही।
मृदु बैन से मोहित कोई हुआ, शर-नैन का कोई था निशाना बना,
मुस्कान का मौन पुजारी कोई, कोई रूप का था परवाना बना।
दिल चीर अदाएँ किसी का गईं, मजनू-सा कोई था दिवाना बना,
किसकी-किसकी कहें बात की था जब चाहक सारा ज़मान बना।
ढुलकी नव-यौवन की मदिरा तन जर्जर रोग शिकार हुआ,
उड़ प्राण पखेरू गए पल में जब काल का वज्र प्रहार हुआ।
वह कंचन जैसा कलेवर भी कुछ ही क्षण में जल क्षार हुआ,
कुछ अस्थियाँ शेष बची बिखरीं सपना सब साज-सिंगार हुआ।
क्षणभंगुर जीवन है, न सदा रहती है बहरो-जवानी यहाँ,
यह रूप की चांदनी दो दिन है, हर चीज़ है नश्वर-फ़ानी यहाँ।
जनमे जितने भी गए जग से, बच पाया न एक भी प्रानी यहाँ,
कहने के लिए कुछ रोज़ को ही रह जाती किसी की कहानी यहाँ।