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मानव की मनचाही / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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आज प्रवासी प्रीतम के आगम का शुभ दिन आया।
जान, प्रियतमा के मन में था नव उल्लास समाया।।

सुभग वस्त्र-आभूषण स्वर्णिम तन पर लगी सजाने।
अंग-अंग में नव उमंग का सिंधु लगा लहराने।।

की संचित सामग्री सारी, करने को अगावनी।
मिलन आस में मचली पड़ती थी मदभरी जवानी।।

कर नख से शृंगार शिखा तक, ली उसने अंगड़ाई।
देख रूप रवि-सा अनुपम, मन फूली नही समाई।।

लेकर कर में चित्र चाव से पिय का जभी निहारा।
तभी पत्रवाहक ने आकर दर पर उसे पुकारा।।

सहमी-सी कुछ गई द्वारा पर पत्र खोल कर देखा।
टूट पड़ी बिजली-सी बनकर कुटिल भाग्य की रेखा।।

‘आ न सकंूगा अभी’ पत्र में बस इतना पढ़ पाई।
आहत हिरणी सी भू पर गिर पड़ी मूर्च्छना आई।।

रूद्ध कंठ से अस्फुट-सा स्वर निकल सका इतना ही।
‘कब पूरी हो सकी जगत् में मानव की मनचाही?’