भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहे / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:50, 21 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महावीर प्रसाद ‘मधुप’ |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कर मुखभंजन शत्रु का, पाकर नव-उत्कर्ष।
विश्व-शिरोमणि बन सके, विजयी भारतवर्ष।।

यदि पैसे के मूल्य की, पाना चाहो सीख।
कभी किसी से देख लो, स्वयं मांग कर भीख।।

वृक्षों का होता सदा, उनके फल से ज्ञान।
मित्रों से होती सदा मानव की पहचान।।

धैर्य, बुद्धिमत्ता सहित, चलो सदा अविराम।
तेज़ दौड़ने का महज, ठोकर ही परिणाम।।

औरों से पूछो तुरत, जो न तुम्हें हो ज्ञात।
ज्ञानप्राप्ति की है यही, कुंजी जग विख्यात।।

आतुरता पथ को स्वयं, कर देती अवरूद्ध।
धैर्य सहित हर काम को, करते धीर-प्रबुद्ध।।

बुधजन के श्रम का करें पंडित ही सन्मान।
कठिन प्रसव की पीर को, बांझ सके क्या जान।।

शैनः-शैनः हर कार्य को, नियमित करो हमेश।
करने से अतिशीघ्रता, लगती देर विशेष।।

तुमको भूल प्रमाद पर, मिले अगर फटकार।
नत-मस्तक होकर करो, समुद उसे स्वीकार।।

सुजनों का सत्संग नित, काव्य- सुध रसपान।
जग रूपी विषवृक्ष के, ये दो सुफल महान।।