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संत / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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संत टिकाते चरण जहाँ, वह थल तीरथ बन जाता है।
संतों के दर्शन स्वारथ, परमारथ बन जाता है।
संत जहाँ करते निवास, देवालय होता भवन वही,
संतकृपा से शक्तिहीन मानव समरथ बन जाता है।।

अपने सुख दुख की न कभी परवाह किया करते हैं,
सहते सब चुपचाप, न मुख से आह किया करते हैं।
स्वयं बिता देते अभाव का जीवन हँसते-हँसते,
संत सदा औरों के हित की चाह किया करते हैं।।

संत सदा दुख सहकर पर-उपकार किए जाते हैं,
फँसी बीच मझधार नाव माँझी बनकर खे जाते हैं।
लेते नहीं किसी से कुछ, दाता बनकर जीते हैं,
स्वयं चले जाते, जग का नवजीवन दे जाते हैं।।