भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कौवा और कोयल / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:50, 29 जून 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
रखे टोकरी सिर पर कोयल,
इठलाते इठलाते आई|
कौवे के घर की चौखट पर,
“सब्जी ले ले” टेर लगाई |
कौवा बोला नहीं पता क्या?
कितनी ज्यादा है मँहगाई|
सब्जी लेने के लायक अब ,
नहीं रहा है तेरा भाई|
ऐसा कहकर कौवेजी ने,
आसमान में दौड़ लगाई|
फिर नीचे आकर मुन्ना की,
रोटी झपटी, छीनी खाई|
कौवे की हरकत को दुनियाँ,
वालों ने समझा चतुराई|
छीन छीन कर खाने में ही,
लोग समझने लगे भलाई|
पर चिड़ियों ने चुग चुग दाना,
जीवन की सच्चाई बताई|
कड़े परिश्रम की रोटी ही,
होती है सबसे सुखदाई|