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उपदेशसाहस्री / उपदेश ५ / आदि शंकराचार्य

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मूत्राशञ्को यथोदञ्को नाग्रहीदमृतं मुनिः।
कर्मनाशभयाज् जन्तोरात्मज्ञानाग्रहस्तथा॥

बुद्धिस्थश्चलतीवात्मा ध्यायतीव च दृश्यते।
नौगतस्य यथा वृक्षास्तद्वत् संसारविभ्रमः॥

नौस्थस्य प्रातिलोम्येन नगानां गमनं यथा।
आत्मनः संसृतिस्तद्वद् ध्यायतीवेति हि श्रुतिः॥

चैतन्यप्रतिबिम्बेन व्याप्तो बोधो हि जायते।
 बुद्धेः शब्दादिनिर्भासस्तेन मोमुह्यते जगत्॥

चैतन्याभासताहमस्तादर्थ्यं च तदस्य यत्।
इदमंशप्रहाणे न परः सोऽनुभवो भवेत्॥