भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव का एक दिन / शहनाज़ इमरानी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:00, 20 जुलाई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शहनाज़ इमरानी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पन्ना बनाया)
परिन्दे जाग गए है
एक दूसरे का अभिवादन
कर रहे हैं शायद
दो चिड़ियाँ आपस में
प्यार करती है
या झगड़ती हैं
चार खम्बे और एक छप्पर
कहने को है एक घर
आँगन के चूल्हे से
उठता कण्डों का धुआँ है
एक बछड़ा उछलता है
एक चितकबरी गाय रँभाती है
एक कुत्ता आँगन में सोता है
एक गहरा कुआँ
जिस से लौटती थीं गूँजती आवाज़ें
समय ने पाट दिया है
कुछ पेड़ों के पत्ते पीले हुए है
सूनी डालियों को छोड़ कर
हवा के रुख़ पर तैरते है
जैसे बिना इरादों के आदमी
कच्चे रास्तों से गुज़र कर
गाँव की छरहरी पगडण्डी
चौड़ी सड़क से जा मिली है
यहाँ सब कुछ वैसा सुन्दर नहीं है
जो अक्सर टी० वी० के चैनलों पर
दिखाया जाता है
मुख्तलिफ़ दुनिया है गाँव की
अभावों से भरी ज़िन्दगी की साँसे
किसान का पसीना
और ग़रीबी की मार ।