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अजीब इन्तज़ार / सविता सिंह
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कितना कुछ अब भी बचा है उसमें
मृत्यु के लिए
कितना अपमान कितनी उदासी
कितने शब्द क्रोध में पनपे
कितना कुछ समाप्त कर गईं ख़ुशियाँ
अपने स्वागत में
जीवन का सारा मोह ही जैसे रिस गया
स्वाभिमान में ऎंठी इच्छा निराशा में डूबी आख़िर
न प्यार न ख़ुशी
उसने इन्तज़ार किया
बस इन्तज़ार
अजीब इन्तज़ार
आह ! मगर किसका