भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

व्यंजना को शब्दों से सजाऊं / शशि पुरवार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:00, 1 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि पुरवार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम उदधि मै सिंधुसुता सी
गहराई में समां जाऊं
तुम साहिल में तरंगिणी सी
बहती धारा बन जाऊं
तुम अम्बर मै धरती बन
युगसंधि में खो जाऊं
तुम शशिधर मै गंगा सी
बस शिरोधार्य हो जाऊं
तुम आतप मै छाँह सी
प्रतिछाया ही बन जाऊं
तुम दीपक मै बाती बन
नूर दे आपही जल जाऊं
तुम रूह हो मेरे जिस्म की
तुम्हारी अंगरक्षी बन जाऊं
न होगा तम जीवन में कभी
चांदनी बनके खिल जाऊं
तुम धड़कन हो मेरे दिल की
स्मृति बन साँसों में बस जाऊं
मौत भी न छू सकेगी मेरे माही
हर्षित मै रूखसत हो जाऊं
न कोई गीत ,न बहर, न गजल
व्यंजना को लफ्जों से सजाऊं।