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व्यंजना को शब्दों से सजाऊं / शशि पुरवार
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तुम उदधि मै सिंधुसुता सी
गहराई में समां जाऊं
तुम साहिल में तरंगिणी सी
बहती धारा बन जाऊं
तुम अम्बर मै धरती बन
युगसंधि में खो जाऊं
तुम शशिधर मै गंगा सी
बस शिरोधार्य हो जाऊं
तुम आतप मै छाँह सी
प्रतिछाया ही बन जाऊं
तुम दीपक मै बाती बन
नूर दे आपही जल जाऊं
तुम रूह हो मेरे जिस्म की
तुम्हारी अंगरक्षी बन जाऊं
न होगा तम जीवन में कभी
चांदनी बनके खिल जाऊं
तुम धड़कन हो मेरे दिल की
स्मृति बन साँसों में बस जाऊं
मौत भी न छू सकेगी मेरे माही
हर्षित मै रूखसत हो जाऊं
न कोई गीत ,न बहर, न गजल
व्यंजना को लफ्जों से सजाऊं।