भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन समझते हैं आप? / ममता व्यास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:35, 5 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ममता व्यास |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यकीनन वो स्त्री नहीं थी।
सिर्फ और सिर्फ "मन " थी।
मन से बनी, मन से जनी
मन से गढ़ीऔर मन से बढ़ी।

जिससे भी मिलती मन से मिलती।
अपने मन से दूसरे के मन तक
एक पुल बना लेने का हुनर था उसके पास।
इस पुल से वो दूसरे मन तक पहुँचती थी।
उन टूटे फूटे मन की दरारें भरती , मरम्मत करती।

जानती थी, सोने चांदी से मरम्मत नहीं की जाती।
मन की दरारें मन की मिट्टी से ही भरी जाती।
उसके बनाये मन के पुल पे चलकर लोग आते
जाते समय इक मुट्ठी मन की मिट्टीभी लिए जाते।

(वो इस बात पे मुस्काती और कहती मन समझती हूँ मैं )

धीरे-धीरे मन के पुल टूटने लगे।
मिट्टी की कमी से आसुओं की नमी से
रिश्ते जड़ों से छूटने लगे
अब वो पुल नहीं बना पाती|
इतनी मिट्टी वो अकेले कहाँ से लाती?

धीरे धीरे उसका मन बीत गया
जैसे कोई मीठा कुआँ रीत गया।
वो राह तकती है , कोई आता होगा
साथ में इक मुट्ठी मन की मिट्टी लाता होगा।

वो अब भी मुस्काती है और कहती है
ओह, मन नहीं समझते न आप?