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कविताक विषाद / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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शरदक निरभ्र राति चन्ना चकमक करैत
चन्द्रिकाक चुनरीकेँ चानीरंग रङै छलाह,
नगर-गाम, बाध-बोन गिरि-निर्झर सर-सरिता
सबतरि इजोड़ियाक चनबा टङै छलाह।
कोनटासँ ठुनकबाक शब्द जखन कान पड़ल
चकित होइत चटपट उठि, दौड़ि ततय देखल जा
कन्या कुमारि एक क्रन्दनेक सुरमे सुर, मिला
जीर्ण तन्त्रीकेँ रहि-रहिकय रहल बजा।
आश्चर्यक क्षितिज केर पिरधि कते बढ़ल गेल
अपनहु अनुमान तकर यत्नहु कय पौलहुँ नहि,
भावनाक उदधि मध्य ज्वारि जते उठल गेल
उठिते हम छोड़ि देल तकरा दबौलहुँ नहि।
विस्मय-विमुग्ध भेल हमरा तकैत देखि
बाजलि ओ-प्रश्न अहाँ पूछय जे चाहै छी
पहिनेसँ हमरा से बुझले अछि, तैयो हम
अहँक मनक भावनाकेँ विलमि कने थाहै छी।
कविता थिक नाम हमर, ब्रह्माकेर बेटी छी,
बाल्मीकि केर कण्ठ बाटेँ हम आइलि छी,
कालिदास, भवभूति, विद्यापति चन्दा झा
तुलसी ओ सूरकेर स्वरमे समाइलि छी।
केहन केहन साधक ओ सेवकसँ पूजित भय
विचरण हम कयलहुँ समस्त मर्त्त्यलोकमे,
कलोकेर छाती पर बैसल अज्ञान हाय।
कना रहल आइ, डुबा देने अछि शोक मे।
आजुक जे साधक मतक्का चढ़ि बैसइ छथि
गत्र-गत्र तोड़ि हमर मूड़ी मचोड़ि देल
शीशा बरकाय कर्ण-कुहर मध्य ढारि तथा
टकुआसँ भोंकि भोंकि आँखि हमर फोड़ि देल।
आन्हरि, बहीर, लुल्हि, पंगु भेलि बैसलि छी
किन्तु प्राण पक्षी नहिं पिजड़ तजैत अछि,
नाम हमर भजा भजा बड़का पाखण्डी सब
सभामंच चढ़ि-चढ़ि भरि इच्छा पुजबैत अछि।