भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यैह थिकै गनतन्त्र / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:04, 8 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आम चुनाव तते होइछ जे आम फड़ब अछि बन्द,
आम लोककेँ डिब्बाबन्दे भेटि सकत आनन्द।
आम सभामे के नहि फटकथि क्विंटल भरि आश्वासन,
आम बात एतबे जे कहुना भेटि जाय सिंहासन।
क्यौ हल्ला गुल्ला करबेकेँ बना लेलक हथियार,
बीच बाट पर फोड़ि रहल अछि प्रतिपक्षीक कपार।
चलय राजनीतिक से गोटी जे समाज केँ तोड़य,
पाखण्डीक विरोधी जा कय तकरो भण्डा फोड़य।
एकक नहि, सम्पूर्ण समाजक बुद्धि छैक लटकल भसिआयल,
तेँ देशक सब प्रमुख समस्या छै लटकल लसिआयल।
आँखि मूनि ई वर्ग प्रबुद्धक पच्छिम दिस रूखि कयने,
परम्परागत सुगम बाटकेँ छोड़ि कुबाटे धयने।
पुरातत्त्ववेत्ता समाजमे बातक बजरल मारि
क्यौ इतिहासक धूर छँटै छथि, क्यो तोड़ै छथि आरि।
आदि भूमिवासीकेँ बहुतो कहि, रहलाह विदेशी,
कोन आत्म-वंचना एहिसँ भय सकैत अछि बेसी?
अनेक नाङड़ि धरब जीवनक मानि लेल उत्कर्ष,
बिसरि गेल जे विश्ववन्द्य कहियो छल भारत वर्ष।
नेतृ वर्ग तँ सहजहि अपने छथि सब बुद्धि-निधान
कल्ला नहि अलगाय सकै छथि केहन केहन विद्वान।
सूत्रधार कहबथि, से मुट्ठीमे धयने छथि टीक,
टेलीफोन गाम धरि पहूँचल, चिन्ताआब कथीक?
जूड़ि सकै जकरा नहि रोटी पर चुटकी भरि नोन
तकर परम उपकार करत ई गामक टेलीफोन।
टेलीवीजन नाच देखाबय, बक्सा गाबय गीत,
उचिते शास्त्र-पुराणक चर्चा एकरा आगाँ तीत।
सतभतरी थिक ई स्वतन्त्रता जनतन्त्रक छै पालिश,
बीच बाट पर मारत, ककरा लग करबै नालिश?
जकरा सब जनतन्त्र कहै छै, यैह थिकै गनतन्त्र,
बम-बारूद अमार, चलत नहि मारण-मोहन मन्त्र।
अहाँ थिकहूँ वोटर कोटरमे बैसू, खुद्दी फाँकू,
साढ़े तीन हाथसँ बेसी नहि अपनाकेँ आँकू।