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इस आश्विन में / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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रास्ते के दोनों ओर के घरों में
पिंजरों का ढेर
सारा गाँ कर रहा है भाँय भाँय
शोक में डूबी हैं शाँखा-चूड़ियाँ।

खून चूसनेवाले दिग्विजय से लौटकर
बन्दरगाहों में पिटवा रहे हैं डंके,
उन्होंने फाँस रखा है सारे अग-जग को
मृत्यु-पाश में।

उसकी आँखों में ठहरा है बंजर अन्धकार
उसकी देह से आ रही है लाशों की बू
और पाँव तले है चिताभस्म।

भूख टटाये हाड़ से
सिहरकर चौकन्ना हो उठता है वज्र
उन्मत्त ज्वार-स्तम्भ काँप-काँप् उठता है
गु़स्से से बिफरे काले बादलों की टेढ़ी भौंह से छूटती
बिजली के लिए
तैयार है धरती।

दिशा-दिशा में हो रही
विजयोद्धत जीवन की घोषणा
खुले हाथ उलीच रहा है सूरज
ढेर का ढेर सोना,

रोमांचित है हर खेत
जहाँ फूट-फूट पड़ती है
आश्विन की चटकीली सुबह।
पुलकित जंगल का
मन्त्रमुग्ध नीलाभ पंछी
उड़ चला है निरुद्देश्य-शून्य के विस्तार में।

सिर धुन रही है चंचल हवा में फँसी
पेड़ों की शाखाएँ,
फूट पड़ी हैं रक्तवर्णी फूल बन
दबी हुई मन की इच्छाएँ।

चटियल बालू-ढूहों पर चिड़ियों के कलरव से
दौड़ा चला आता है चंचल ज्वार
खुल जाता है हाथों की चोट से
जीवन का रुँधा सिंहद्वार।

सूरज के भाल पर
आगामी दिनों के सपने
दूर-दिगन्त तक जुते हुए खेतों में
आगंतुक अंकुरित पैरों के निशान करता जाता अंकित।

जंगल में पेड़ों की डाल-डाल पर
बाजूबन्द बाँध दिया करते हैं पलाश
और उतावला पंछी लगता है चहकने।

दूसरों से सहमा हुआ है हमारा दुश्मन
मुखौटे की आड़ में वह तेज़ कर रहा है अपने नाखून
जीवन-यात्रा के पथ पर बिखेर देता है काँटे
उसके पाँवों से बँधी हुई है मौत
लोभ ही है उसकी राह।

क्षमा नहीं-
शोक में डूबा, सन्ध्या का आकाश दीख रहा है
सुहागन के उजड़े सुहाग-सा।

कन्धे से कन्धा जोड़कर खड़े रहो,
हाथों में वज्र लेकर टूट पड़ो
और देखो हिल रही है धरती
गु़लामी का कलंक मिट सकेगा तभी।