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स्वागत / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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सारा गाँव ही चला गया है शहर
घर सूने, सूने चौपाल
यूँ ही पड़ी है धान बोई ज़मीन।
तुलसी के सूने चौरे पर, संझा-बाती नहीं
तभी पसरकर बैठ गया है अन्धकार।
घास-फूस और जंगली पौधों से अटा पड़ा है आँगन,
सूरज कब का जा बैठा है पाटी पर।

दीख नहीं पड़ता कहीं कोई चरवाहा
ना ही गायों की गोठ से उड़ रही है धूल,
और न ढेंकी के कूटे जाने की आवाज़
नहीं छलकती दीख रही किसी पनघट पर कलसी।
खर पतवारों से पटी हुई पगडंडी
बिना शंख -स्वर ढल जाती शाम
सूरज बढ़ता जाता अस्ताचल की ओर।

ताँती कपड़े नहीं बुनते
तेली कोल्हू नहीं चलाते
ताला झूल रहा है कुम्हार के चौखट पर,
बन्द पड़े हैं टपपर
ग़ायब हो गये हैं दुकानदार
हाट में बेच-बाचकर हथौड़ियाँ
राख बदन पर पोते ठलुए-सा
पड़ा हुआ है भाँथी-भट्ठा।
कौन जाने किन राहों पर
निकल गया है बढ़ई?
कँपने लगी है अब सर्द हवा;
चंडी-मंडप के सामने जल नहीं रहा कोई अलाव
एक से दूसरे हाथ तक घूम नहीं रहा हुक्का
गाँव-जवार में कहीं नहीं सुलगता दीख रहा कोई चूल्हा।

उनींदी रातों में-
पैरों की आहट पाकर अब नहीं भूँकता कुत्ता,
दूर खड़ी नंगी हरियाली हाथ हिलाकर
चाह रही है, खेतों में धान की सुनहरी फ़सल लहलहाये।

उसकी दोनों आँखों में इन्तज़ार है,
उसकी पलकों पर देते हैं सपने दस्तक।
शहर शहर पड़ती है हाँक।
रास्ते में पड़नेवाले श्मशान से
एक ठंडी भीड़ सुनती है वह पुकार
और खेत की फ़सल पकने के दिन गिनने लगती है।

ऐसा कठिन संकल्प मन में धारे
एक-एक कर, सब-के-सब
आँखों से शोक के आँसू पोछने के बाद सोच रहे हैं-
घर-घर में भिजवायें कैसे नवान्न का सन्देश।

जाग उठी पैरों की आहट बाट-बाट
बातें करती नदी, पंछी गाते गान
खेत का राजा मुग्ध नयन से देख रहा
-धान और धान।