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हस्ताक्षर / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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खुले आकाश में
रक्त से लथपथ किसी युद्ध में
अन्धकार भी तड़प-तड़प् कर दम तोड़ दे।
अब तक नहीं उगा है सूरज,
कौवे की कर्कश काँव-काँव
नाच रही हैं रास्ते पर बिर्राती लहरें।

यह अचेत काया
जीवन की किसी हलचल से शान्त पड़ी रहती है।
आँखों में लिये कोई गहरा अभियोग
भिक्षा-पात्र पर टिके हैं दोनों हाथ;
उसके होंठों पर फेला है, भूखी आत्मा का
निर्मम दन्तुल अभिशाप।

टपकते नहीं किसी की आँख से दुखः भरे आँसू
सुन नहीं पड़ता विलाप का स्वर
इर्द गिर्द गूँज रहा है तो सिर्फ अट्टहास
और बदहवास लालची जानवरों की चढ़ी त्योरियाँ,
जहाँ वात्सल्य है मृत, प्रेम पराजित
और भरा है कूट-कूट कर दम्भ।
सारा संसार बिखर कर हो गया तबाह
पीड़ा से आहत जल रही विह्वल धरा।

मैं उसे जानता हूँ शायद
धान की चौकन्ना बालियों को सुन पड़ी थी
उसके क़दमों की आहट।
उसकी आँखों में थी किसी ख़ास दिन की-खुशियाँ और चमक।

उसके हाथों में थी विश्व ऐश्वर्य की खन्ती
हृदय में विपुल विश्वास
उसके प्रति ऋणी है मेरी प्राणधमनी।

ख़ाली पेट उतर आती हैं
छाया में डूबी शातिर जं़जीरें,
चेतना धीरे-धीरे कमज़ोर पड़ती जा रही;
चमकीली रोशनी में देख रहा-मैं
हमदर्दी का चोला पहने
दुश्मन के दलालों ने
रखा छुपाकर जिसने अँधेरे कोठार में
लाखों मन चावल;
और दूसरे हाथ में अग्निगर्भ प्रस्ताव।

खुले आकाश में; वही तो आता है।
असुरक्षित रथचक्र
गिर रहे वज्र के नीचे
सदियों का देशदर्प काँप् रहा है सर्वनाश में।
हत्यारा हँसता है!
काँपती उँगलियों से गिन रहा है दिन
उसके पाँव तले है श्मशान,

तो भी मैं जानता हूँ विजय की ओर बढ़ रही मुक्ति पताका,
आन्दोलित जनसमूह प्रबल उत्साह से
भींच लेना चाहता है नियति को अपनी मुट्ठी में।

सम्मिलित हाथांे में बटोर लाता है
खुली रोशनी में अँधेरे कोठारों की फ़सलें।
दृढ़संकल्प प्रतिरोध से भूखे लोगों के सहायतार्थ,
दौड़ी चली आती हैं सेवा को आतुर बाँहें।
दूर-दूर तक खेतों में थकान का नहीं कोई निशान
अनगिनत हल-
कर रहे हैं नवान्न का आवाह्न।

हालाँकि सामने खड़ा है तूफान,
रास्ता काँटोंभरा,
हम जानते हैं जीत होगी हमारी,
अमर शपथ-पत्र पर कर जाएँगे हम
उस दिन के हस्ताक्षर।