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घोषणा / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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यह देश मेरा गौरव
यह माटी मेरे लिए सोना।
मुक्ति का लक्ष्य पाने यहीं होती हैं पल्लवित और पुष्पित
मेरी अनगिनत इच्छाएँ और आकांक्षाएँ।
यहाँ मेरे पास हैं
हिमाचल और कन्याकुमारी।
अलंघ्य दीवारों की एकता
संकल्प की साक्षी।

अकाल से त्रस्त देश
रक्तनेत्र बर्बर राजा का शासन
जिसका विश्वस्त मित्र है शकुनि
हाथों में जिसके खिसक चला है सिंहासन
उसके अंग-अंग पर अंकित है मृत्यु
आ रही जिससे, सड़ी लाश की बदबू।

जाग उठा प्रजा पुंज
घर-घर लगी है आग
सूरज सिर पर उगल रहा अंगारे।
गोदामों से ग़ायब है अनाज
ख़ाली पेट के चलते ठपप है खेती-बारी
कारख़ानों में जारी है तालाबन्दी।
पहरे देती दुकानों पर लम्बी-चौड़ी फ़ौज
पीछे इनके पीर झेलती गलियारों की करुण कहानी।

बीहड़ जंगल का अँधेरा और आतंक
लड़खड़ाते क़दमों में मसान की आहट।
सब कुछ लुटता नज़र आ रहा
ठहरी आँखों के आगे दिखती है बार-बार
हाथों की बेड़ी-
किसी भगोड़े के प्राणों का आधार।

अभिशप्त जीवन में एक बार फिर
कुरुक्षेत्र दे रहा दस्तक।
जिससे निकल भागने को दीखता नहीं
खिड़की का कोई पल्ला तक।

सामने प्रतीक्षारत हैं
हरियाली के एक सिरे पर
औंधे पड़े, बल्लम-भाले,
क़दमों तले कुचली जा रही बिजली की रफ्तार
नींद से जग, भिंच जाती हैं सबकी मुट्ठियाँ
हो जाती हैं टेढ़ी सुलगती आँखों की भृकुटियाँ
पलभर में चूर हो जाते हैं दर्प और अहंकार।

गंगा के ज्वार में जागता है स्पर्श
वोल्गा की लहरों का
आँखों में जगता है एक नया सूर्योदय
मुक्ति ने फेला दी है अपनी मज़बूत बाँहें
बेड़ियाँ मान चुकी हैं अपनी हार
देख रहा मैं हैरतभरी आँखों से
दिक्दिगन्त में होनेवाला विप्लव।

एक विचित्र-सी लहर
बढ़ती आती मुक्ति की तरफ
वर्तमान के घोड़े पर सवार इतिहास में
थामे देश-प्रेम की बागडोर।
उसके पैरों की गति बड़ी चंचल है।
गाँवों क़स्बों शहरों और बाज़ारों में
मरजीवा संकल्प ले रहे हैं अनगिनत लोग

मृत्युसंकुल पथ पर जमा हैं;
डंका बजता नये युग का;
एक नयी सिहरन से कंपित है धरती।

यह देश मेरा गौरव
यह माटी मेरी आँखों में सोना,
मैं उसी के आविर्भाव की
कर रहा हूँ घोषणा।