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पत्थर के फूल / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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(एक)
इन फूलों को हटा लो
ये तंग करते हैं मुझे
मालाएँ
जम-जम कर बन जाती हैं शिला
और फूल
जम-जम कर पत्थर।

इन पत्थरों को हटा लो
ये मुझे तंग करते हैं।

और अब मैं
वैसा बाँका जवान भी नहीं रहा।
यह देह अब
धूप, पानी और हवा ...
कुछ भी .... झेल नहीं पाती।

याद रखना
अब मैं हूँ अपनी माँ का लाड़ला बेटा-
थोड़े में ही मान जाऊँगा।

‘मैं जाऊँगा’, यह कहकर
मैं तड़के ही घर से निकल पड़ा था
यहाँ पहुँचते-पहुँचते हो गयी शाम
अब रास्ते में-
मुझसे क्यों इन्तज़ार करा रहे हो?

काफ़ी देर तक थमे रहने के बाद-
गाड़ी अब रुक-रुक चल रही है।
मोड़ पर, फूलों की एक दुकान पर
भीड़ लगी है, लोगों की।
पता नहीं, आज किसका मुँह देखकर उठा था वह आदमी।

(दो)
मैंने सोचा था जैसा-
मुझे मिल गया ठीक वैसा-
वही धूप, वही धूनी, वही माला, वही जुलूस
रात गहरा जाने पर
शायद कोई सभा-वभा बैठेगी!

(फूलों की छापवाले
एक काग़ज़ पर लिखे नामों के बाद)
सब कुछ हू-ब-हू मिलता चला गया।
लोगों की बेचैनी भी कुछ कम हुई है-
और समय भी ठीक वही है।
हाथ आगे बढ़ाया नहीं कि
घाट का खर्चा निकल आएगा।

एक कोने में, फटे कपड़े पहने
सूनी आँखों से तकता है
और जबड़े भींचकर
मेरा बेटा
पोटली जमाकर बैठ जाता है।
बड़ा ही बेवकूफ है वह
दुर छी ... क्या यही है तू वह वीर पुरुष?
अभी शुरू ही नहीं हुई सर्दियाँ और तू काँपने लगा!
भला ऐसे कैसे चलेगा हम लोगों का?

इन फूलों को हटा लो
ये तंग करते हैं मुझे।
ये मालाएँ
पहाड़ जम-जमकर हो जाते हैं।
और, फूल जम-जमकर पत्थर।
इन पत्थरों को हटा लो
ये मुझे तंग करते हैं।

(तीन)
फूलों के बारे में-
लोगों के अनाप-शनाप बोलने के चलते ही,
फूलों के लिए मेरे मन में कभी कोई रुझान नहीं रहा।
इनके बरक्स मुझे पसन्द हैं
आग की चिनगारियाँ
जिनसे किसी दिन और किसी का
तैयार नहीं किया जा सकता कोई मुखौटा।

ऐसे में, क्या कुछ हो सकता है
मुझे पता था।
प्यार के झाग में उठेगा एक दिन ज़ोरदार उबाल
यह मैं जानता था।

जिस किसी सीने में
और जिस किसी भी पात्र में क्यों न सहेज रखूँ-
मेरा सारा-का-सारा प्यार
मेरा ही बनकर रहेगा।

रात-दर-रात, मैंने जग-जगकर देखा है-
कि कितने क्षणों बाद और कैसे होता है सवेरा;
न जाने मेरे कितने दिनमान बीत चुके हैं-
अन्धकार के इस रहस्य-भेदन में।

मैं एक दिन और एक पल-छिन के लिए भी
नहीं रुका।
मैंने अपने जीवन से सारा रस निचोड़कर,
एक-एक के अन्तर घट में डाल रखा था-
और वही रस छलक उठा है आज।

नहीं,
अब मैं केवल बातों से आश्वस्त नहीं
जहाँ से सारी चीजें़ होती हैं शुरू
और जहाँ होती है ख़त्म-
बातों के उसी उद्गम में
नाम के उसी परिणाम में,

हवा, माटी और पानी में

मैं चाहता हूँ स्वयं को कर देना विलीन।

कन्धे बदल लो
अबकी बार
स्तूपाकार लकड़ियाँ मुझे लील जाएँ।
आग की एक प्यारी-सी चिनगारी
फूलों के लिए मेरी सारी पीड़ा
पी जाए।