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दीवारों के लिए / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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दफ़्तर में काम किये बिन
शहर में मिल जाता है वेतन
गाँव में हाड़-मांस गल जाता
फिर भी पेट सुलगता रहता।

दायाँ हाथ रोक देता है।
बायाँ हाथ झोंक देता है।

जो की ना तुमने ‘हाँ जी’...
तो कहाओगे चोट्टे पाजी।

जब बिधना ही हो विपरीत।
तब काम काज की उल्टी रीत।

छत के बदले छाता।
भात के बदले भत्ता।

वोट के पहले सारे सज्जन।
बाद वोट के गर्जन तर्जन।

इधर बने सर्वहारा के दलाल।
उधर किराये हड़प भये मालामाल।