यही तो / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
जी, मैं यहाँ हूँ
जी हाँ,
हें...हें...हें-
एक मक्खी तक उड़ा सकता नहीं
क्योंकि जुड़े हुए हैं मेरे दोनों हाथ।
मैं पुकारता जा रहा हूँ लगातार
लेकिन कोई भी नहीं रुकता
सभी मुँह फेर फेर जाते हैं-
अपने-अपने ठिकानों की ओर।
कानों में केवल सुन पड़ता घेंउ-घेंउ-केंउ-केंउ का स्वर
पता नहीं किस कोने में
भाड़ झोंकने चली गयी वह शुभ रात्रि
कहाँ चले गये सारे सुप्रभात!
ज़रा देखिए तो तमाशा!
कोई एक बार नज़र उठाकर देखे तो सही!
यह तो पूछे: भई, कौन हो तुम!
क्यों बैठे हो?
लेकिन नहीं।
मैं अकेला उसे बुलाता चला जा रहा हूँ
हाथ हिलाकर, इशारे से
अपने गले की नसें तान-तानकर।
साँड की तरह खदेड़ रहा मुझे
मेरे पीछे पड़ा वक़्त।
हर घड़ी दौड़े चले जा रहे हैं लोग
किसी को किसी की परवाह नहीं
बला से कोई किसी को पुकारे न पुकारे।
रास्ते से गुज़रनेवाले हर राहगीर को मैं
सिर से पाँव तक इस तरह देखता हूँ
मानों वह गोंद से चिपकाया गया
कोई लिफ़ाफ़ा हो
जिस पर लिखा हो, किसी दूसरे का नाम-मुकाम।
ऐसा भी हो सकता है
कि आदतन वह सब मेरी ही ग़लती हो।
बड़े होने पर लोग जिसे फेंककर चले जाते हैं
मैं भी ठीक वैसे ही
खेलघर में पड़ा हुआ-
बच्चों का
एक कठपुतला भर।