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घाट-पार के चित्र / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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इस पार निगलकर उस पार उगलेगी।

इस तरह फेरी लंच पर
उगता है दिन और ढलती है शाम।
अपने दोनों हाथ उठाकर दोनों किनारे
मन की मौज में
नीचे ऊपर, ऊपर नीचे
लगातार खेला करते हैं।

मिट्टी काटनेवाला जहाज़
बीच नदी में पानी गँदला कर रहा है
बीच-बीच में गेरुआ रंग की लहरें
मन को चंचल कर जाती हैं।

धान का भाव क्या है!
भज गोविन्द!
आइए बाबू, बहुत ही बढ़िया होटल है
भज गोविन्द!
आइए जनाब!

चाय...पान...बीड़ी...
मर्तबानी केला...
आम-कटहल-मुर्गी-मच्छी
फेरीघाट के बाज़ार में कैसी रौनक है!

काँधे से झूलते झोले, पोटले...पोटलियाँ
टिन के बक्से
पढ़ने की किताबें
सिन्दूर की डिबिया
मेले में खींची जा रही तस्वीरें
माला और कंठे
पुराने ताश की गड्डियाँ
कथरी कम्बल और अदालती काग़ज़ात।

आ रहा है नाचता-नाचता...फेरीवाला लंच
और नाचता-नाचता ही चला जाएगा।

इस पार निगली सारी तस्वीरें
उगल देगा, उस पार।