भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं भूल सकता / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:12, 11 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुभाष मुखोपाध्याय |अनुवादक=रणजी...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चाय की दुकान
ज़ोरदार झड़प।
दरक रही है मेज़।

अचानक सुन पड़ी चीख-
ज़मीन पर पाँव
और आसमान में हाथ। जुलूस।

बदल गया दृश्य।
हाथ से गुँथा हाथ।
ऋणी बना डाला
भूला नहीं
भूल सकता भी नहीं
यह जीवन में किसी दिन।

टूट रहे किनारे
राख के अन्दर चिलक रही
आग। हवा।

सुबह का वक़्त
किनारे पर पहुँचते ही
घाट की चाय सुड़कना।

सुर में सुर मिलाकर
हमने गाया है गान-
‘हमारी माँ बन्दिनी है।’
मैं भूला नहीं
और न भूलूँगा जीवन में कभी।

इस ओर घर
दूसरी ओर घर
बीच में पुख्ता दीवार।

दावत की पत्तल
बिछाकर खुश है
मक्कार सियार।

रूखे-सूखे चेहरेवाली
पूछ रही है माँ,
‘क्या नहीं दिया जो पाया?’

मैं भूला नहीं
और कभी नहीं भूलूँगा
जीवन में किसी दिन।