धूप में / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
हम बड़े बुजुर्ग भला क्यों बार-बार
इस कमरे में आकर
अपने आँसू पोंछ लेते हैं?
मेरी बिटिया रह जाती है हैरान
और सोचती है-
हम लोग रो रहे हैं, सचमुच!
और अगर ऐसा नहीं
तो आँखों में क्यों हैं आँसू?
पगली,
तुझे कैसे समझाऊँ?
कभी-कभी
आँखों के कुएँ से निकले जल में
आँसू नहीं होते
-होती है ज्वाला!
अरी पगली!
गीली लकड़ी में चाहे जितनी फूँक मारूँ-
कभी वह आँच नहीं पकड़ेगी
बल्कि इसके धुएँ से
आँखे ही सुलग उठेंगी;
जिस तरफ भी आँखें उठाकर देखता हूँ
सबकुछ धुएँ में अटा नज़र आता है।
आँखों में ज्वाला लिये
हम बाहर आ जाते हैं
और पोंछने लगते हैं आँखें,
हमारी आँखों में वही जल है।
कुछ ऐसा ही है जीवन
लेकिन पूरे साल भर नहीं-
बस, बरसात के कुछ-एक महीने ही।
सूखी लकड़ियाँ
कभी लपलपाती आग में होंगी तब्दील
देखते-देखते पक जाएगा भात-
तब एक बार फिर
जो कुछ जहाँ है
सबकुछ देख पाऊँगा साफ-साफ।
बरसात बीत जाए तो
भीगी पड़ी लकड़ियाँ और कंडे-लक्कड़
सबको
धूप दिखाऊँगा
यहाँ तक कि
हृदय को भी।