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देशनिकाला / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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हाँ भाई, विनय बादल और दीनेश
देखो, कलकत्ता को देखो
जो अपनी आँखों के आँसू पोंछता
चला जा रहा है तुम सबको पीछे छोड़,

देखो...
किसी ठेले पर चित लिटाकर
रस्सी से हाथ-पाँव बाँधकर
इस शहर से बेदख़ल कर
देश निकाला
टूटे पाँववाले तख़्तपोश की गोद से,

देखो-
डाली पर खिले गुलाबांे की पंखुरियों पर लिखा है, ‘सुखी रहो।’
टूटी कील कब्ज़े वाला बदरंग जं़ग-खाया
पता नहीं किस ज़माने का
शादी में मिला बक्सा
लाल चीकट सालुक में बँधी
दीमक खायी
पिछली तीन पीढ़ियों की धरोहर एक पंजिका
टूटे-फूटे कन्धेवाले मिट्टी के चूल्हे के पास ही
औंधा पड़ा, कोयला-सना
ताड़ का टूटा पंखा
सिरहाने खड़े हैं प्रियजन
और पड़े हैं गुलदस्ते
आँखों पर तुलसी का पत्ता
छाती पर रखी गीता
‘फस...’ की आवाज़ के साथ
श्मशान में खींची गयी
माँ-बाप की आँखों के तारे की एक अदद तस्वीर
पीली पड़ चुकी है
तेल और सिन्दूर मिलाकर उतारी गयी
गुरुदेव के श्रीचरणों की छाप
फटी नामावली में जड़ी लक्ष्मी मैया की स्तुति
एक सौ आठ नाम और उधड़ी जिल्दवाली रेड बुक।

मोतियाबिन्द वाली आँखों पर चढ़ा मोटे काँच वाला चश्मा
बग़ैर चश्मबन्द वाला
झटके के साथ उस पर आ गिरी लोहे की कजरौटी
और सुन पड़ी हमानदस्ते की ठुड्....ठाड्.
ठुड्. ठाड्.

लाल बाज़ार में बने
तिलचट्टे से भरे टूटे पटरेवाले हारमोनियम पर
शीशे के फ्रेम में जड़े रामकृष्ण परमहंस,
घोड़े पर सवार नेताजी
हथेली पर गाल टिकाये सुकान्त
और मछली के खोसे टाँककर बना राजहंस का जोड़ा

चिथड़े से लिपटा मछली काटनेवाला हँसुआ
पास ही रखा सिलबट्टा
टाट पर लाल-नीले धागे से फूल-कड़े आसन पर
दूधिया शंख और झक सफेद पत्थरवाली नलखड़िया-
सूने, जं़ग लगे, तोते के पिंजरे के पास
सूखी तुलसी के गमले में
लोहे की टूटी बालटी के बीच
पुराने शीशी-बोतल की भीड़ में

सबसे मुँह चुराती...सहमी-सी
कविताओं की एक कापी के पन्ने में
फफकती और फड़फड़ाती हुई
उसाँसें भर रही है हवा...
बात यह है कि पतंगों को हटाकर
आकाश में सिर उठाने लगी हैं
ज़मीन फोड़कर उग आनेवाली बड़ी-बड़ी इमारतें।

फुटपाथों के कान उमेठकर,
दुनिया के पैरों में देश को गिरवी रख
दोनों तरफ हाथ-पाँव पसार रहे
तेज़ गाड़ियोंवाले रास्ते
मम्मी और डैडी परे हटा रहे हैं माता-पिता को

दीवारों से आशासूचक शब्दों को मिटाकर
नियोन की चौंधभरी रोशनी में लिखा जा रहा है
‘शुभ लाभ।’