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अब / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
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मैंने अपनी क़लम उठाकर रख दी है ज़मीन पर
अब तुम सब अपनी-अपनी आँखें
हटा सकते हो।
मुझे अब घेर लिया है
सिर पर आकाश से टूटे अँधेरे ने
मेरी आस्तीन की ओट में अब
सिमटी पड़ी है बिजली
आँधी की तेज़ रफ़्तार में बहता जा रहा
ओ माँ, ओ माँ...कहकर, भूख से बिलखती
एक सिरकटी चीख।
मैं देख रहा हूँ
मेरा अपना ही एक बेजार पड़ा हाथ
चारों तरफ मुँह बाये सर्वनाश की ओर फंेक दिया गया है
मैं चाह रहा हूँ कैसे भी हो, अपना वह हाथ उठा लाऊँ
लेकिन मैं लाचार हूँ।
मैं चाहकर भी
ऐसा नहीं कर पा रहा।