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साध / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
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दो दीवारों पर आमने-सामने
दो तस्वीरें
कीलों से झूल रही हैं।
एक ओर हैं सूली पर टँगे
ईसा मसीह।
और दूसरी ओर
सबकुछ तय जानकर
रथ के पहिये पर हाथ रख
मृत्यु का वरण कर रहे कर्ण।
दोनों ही जीवन-प्राणवान।
दोनों ही विधि से विलग
अमर
गौरव-मंडित।
इनके नीचे
जहाँ कहीं भी रहो-
एक बार पीछे मुड़कर
देखो तो सही, कुँवारी माँ।
बाहर थमने का नाम नहीं ले रही ज़ोरदार बारिश
रह-रहकर चमक उठती है बिजली
छाया है जन्माष्टमी-जैसा घुप अँधेरा
इस बत्तीगुल शहर में।
देखो, घर में दीया जलाकर,
जनम से दुखिया मेरी माँ
सुख के सपने में खोई है
एक हाथ टोढ़ी पर रख
और दूसरे हाथ से थाम खिड़की के सींखचे
गर्भधारण के गर्व से।
यह जानकर तुम खुश हो जाओ-
कल पूरेगी उसकी साध।