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जीवन न बने क्यों बंधहीन / केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’

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हम रहें, न यह आवरण रहे
जीवन न बने क्यों बंधहीन
क्यों छंदहीन की शरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे

हम खुल जाएं ज्यों गगन खुले
हम धुल जाएं ज्यों पवन धुले
सम्मुख यह अलंकरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे

जो घाव हमारे, सभी दिखें
रश्मियां हमें सुस्पष्ट लिखें
हम जहां मिलें, न वहां कुंठा
या संबोधों में मरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे

इतने अक्षर, कोई न व्यथा
शब्दों में केवल एक कथा
स्वर में उच्छ्वासित बांधित्ति
सुश्राव्य बोधि-पथ-चरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे