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जग कहता अभिशाप इस पर / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
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जग कहता अभिशाप इस, पर
जीवन तो वरदान मिला है
जगके मग पर जग बढ़ता है
गिरिशृग्ङों पर जा चढ़ता
निखिल विश्व के धाता पर
कुछ मन की बातें गढ़ता है
दुख के संवल ले चलने पर ही
अन्तर ज्योमिर्मान मिला है
नभ के अनगिन चलते तारे
इन-नयनों में ज्योति हमारे
किस सहृदय ने इसे जलाया
कोई उसका नाम बता रे!
उसे ढूढ़ने को मानव को
अभिनव अनुसन्धान मिला है
मन की अनगिन अभिलाषाएं
अपने पन की परिभाषाएं
नूतन पथ, पाथेय मधुरतर
कुछ स्फूट, कुछ अस्फूट भाषाएं
क्रन्दन यद्यपि मिला, किन्तु कुछ
संग मधुरतम गान मिला है
पंचभूत के सूक्ष्म प्रभुत्व को
क्षण भंगुर संसार और फिर
इस मनुष्य को, मनुष्यत्व को
कौन सकेगा जान इसी से
ज्ञान रूप भगवान मिला है
जग कहता अभिषाप इसे पर
जीवन तो वरदान मिला है