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न जाने किससे मिला विषाद / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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न जाने किससे मिला विषाद
युगों से ढोता आया हूँ
विषमता के घुमड़े घन घोर
कि घेरे जीवन-नभके कोर
उसी की पाकर चंचल छाँह
घड़ी पल सोता आया हूँ
युगों से ढोता आया हूँ
किया मन में जब जो सकंल्प
न ढूँढ़ा उसके लिए विकल्प
भले कोई न हुआ मेरा, मैं
सबका होता आया हूँ
युगों से ढोता आया हूँ
न समझा मैंने योग, वियोग
जिसे रटते रहते हैं लोग
कर्म के पथ पर अपने को
अपने में खोता आया हूँ
युगों से ढोता आया हूँ
मनुज का जितना हुआ विकास
बढ़ी उतनी पैसे की प्यास
प्रकृति का स्वामी बनता दास
देख यह रोता आया हूँ
युगों से ढोता आया हूँ
जगत में ढूँढ़ा बहुत प्रकाश
अधिकतर होना पड़ा निराश,
किन्तु से धोता आया हूँ
युगों से ढोता आया हूँ
निराशा ने फैलायी बाँह
इसी के साये में दिल के
अरमान सँजोता आया हूँ
युगों से ढोता आया हूँ
पला नित संघर्षो के बीच
नयन-जल से अन्तर को सींच
अनुर्वर उर में केवल वीज
शान्ति का बोता आया हूँ
युगों से ढोता आया हूँ