भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जनवरी का गीत / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:20, 20 अगस्त 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश रंजक |अनुवादक= |संग्रह= रमेश र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
धीरे-धीरे ख़त्म हुए जब पेज डायरी के ।
नई धूप ने आकर हाथ मिलाया खिड़की से ।।
जाते-जाते नल के नीचे
जैसे भरे गिलास
बढ़ने लगे दिवस वैसे
आ गया जनवरी मास
हवा कटखनी हुई नदी का पानी पी-पी के ।
नई धूप ने आकर हाथ मिलाया खिड़की से ।।
ग्रीटिंग कार्ड, गार्ड-सा आया
छूटे सारे खेल
लूडो, कैरम हमने
अलमारी में दिए धकेल
लगी दौड़ने रेल पढ़ाई की फिर तेज़ी से ।
नई धूप ने आकर हाथ मिलाया खिड़की से ।।
छोटी होने लगी, साँवली
सुरसा जैसी रात
मैली होने लगीं क़िताबें
घटने लगी दवात
सुबह घोटने लगी रोज़ मीनिंग अँग्रेज़ी के ।
नई धूप ने आकर हाथ मिलाया खिड़की से ।।