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जाहि देखि, चाहत नहीं / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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 (राग माँड़-ताल कहरवा)

 जाहि देखि, चाहत नहीं कछु देखन मन मोर।
 बसै सदा मोरे दृगनि सो‌ई नंद-किसोर॥
 तन-मन-सब लिपटे रहैं, नित प्रियतम के अंग।
 भुक्ति-मुक्ति की कल्पना करै न यह सुख-भंग॥
 भूलि जाय सुधि जगत की, भूलै घर की बात।
 हिय-सौं-हिय लागौ रहै, बिनु बाधा दिन-रात॥
 इंद्रिय, मन, बुधि, आतमा बनैं स्याम के धाम।
 सब में सदा बसौ रहै प्रियतम मधुर ललाम॥