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डूब गया दिन / महेश उपाध्याय
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डूब गया दिन नीले ताल में
और हम
पानी की पर्त-पर्त छिलकर
जाने क्या खोजते रहे ?
लौट गई हवा द्वार से
सन्नाटा सूँघ कर
फैल गई बदन भर घुटन
खूँद-खूँद कर
और हम सवेरे से शाम तक
जाने क्या सोचते रहे
जाने क्या खोजते रहे ?