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भुखमरी का कोढ़ / महेश उपाध्याय

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जून की रोटी हुई छोटी
काम आधे पेट से अब
              हो नहीं पाते
दो खिलौने माँस के भी
नींद पूरी सो नहीं पाते

वस्तुएँ सब दे गईं धोळा
एक चुप्पी पी गई खड़खड़
देह में इतनी नहीं ताक़त
चेतना तक हो गई है जड़

चाहता हूँ नाप दूँ धरती
चार डग भी पाँव आगे चल नहीं पाते

हो गई सुरसा रसोई भी
भुखमरी का कोढ़ फैला है
हर तरफ़ अन्धी अराजकता
दूर तक मौसम कसैला है

सोचता हूँ यह करूँ या वह करूँ दिनभर
हाथ कुछ भी कर नहीं पाते