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अन्हर मारि / कालीकान्त झा ‘बूच’

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नक फकरो तऽ व्याहलि गेली
मृगनयनी कुमारि छै
देखि लिअ औ नगरक लीला
भारी अन्हर मारि छै ...
 
गाम-गाम मे लगनक मेला
बऽर वरद बाछा बनिगेला
अपने बाबा करथि दलाली
बाप डोलाबथि बटुआ खाली
जकरा जतेक अधिक छै पूजी,
तकरे ततेक पुछारि छै ....
 
मेडिकल इंजीनियर बालक,
छथिन महग सम सँ बेशी
बान्हल छनि गरदाम गऽर मे,
देखाबथि अपन शान शेखी
टुटपुजियों काॅलेजियो सबहक
ऊँचे-ऊँचे आड़ि छै...

धऽनक महिमा कते कहू औ
बहुत लोक पाइक जनमल
ज्ञान विवेकक बात कतऽ छै,
जकरे टका सैह निरमल
सासु छुलाछनि बऽहु हिरोइन
 शहर घुमक्करि सारि छै...
 
अपने भऽल पुरूष छी कतवो
सुन्दरि गुनगरियो बेटी
नहि मानत ई बऽर पक्ष जँ,
खाली अछि द्रव्यक पेटी
कोबर गेलि बिलाड़ि मोंख पर
रूपवती सुकुमारि छै...
 
आदर्शक सभ बात करै छथि,
अपना बेर कात ससरै छथि
गनबऽ काल गरीबो मनगर,
गनऽ काल सेठ पछडै छथि
जाहि घऽर ‘मैथिली‘ जनमलि
मरघट्टी तकर दुआरि छै...

नैहर सासुर केर डगरा मे,
बेटी भाटा बनि गुडकै
उपरागक रोटी क संग,
अपना नोरक तीमन सुड़कै
सासुर सँ नैहर धरि नितः
सुनिते अयलि गारि छै