भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोटी के पैदा होते ही / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:25, 28 फ़रवरी 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


रोटी के पैदा होते ही

बुझे नैन में

जुगनू चमके,

और थका दिल

फिर से हुलसा,

जी हाथों में आया,

और होंठ मुस्कराए,

घर मेरा

वीरान पड़ा--

आबाद हो गया ।