भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे लिए तुम / विमल कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:01, 18 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पन्ना बनाया)
तुम जब समुद्र से मिलना
तो मेरे लिए एक लहर ले आना
मिलना तुम जब कभी आसमान से
तो एक टुकडा बादल ही मेरे लिए ले ज़रूर ले आना
किसी शाम को फूलों से मिलकर
अपने बालों में उनकी ख़ुशबू मेरे लिए रख लेना
घुटता जा रहा है अब दम इस तरह शहर में
एक ताज़ी हवा का झोंका मेरे लिए ले आना
सोना जब तुम गहरी नींद में
तो एक सपना भी देख लेना चीज़ों को बदलने का
देखना जब चाँद को रात में चमकते हुए
उसका एक अक़्स आँखों में क़ैद कर लेना
सोचता हूँ तुम आख़िर क्या-क्या ले आओगी
सब्ज़ी और राशन के साथ उस फटे हुए झोले में .....
ज़िन्दगी भर मैं उलझा रहा इस कदर
एक चराग भी ख़रीद कर नहीं ला सका
तुम्हारे लिए इस अँधेरे में उजाले के लिए