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समय की दराँत पर / कुमार मुकुल
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समय की दरांत पर
बजखते जख्म सा
गुजर रहा है विश्व
फटे हाेंठ बिसूरता हमारा मुल्क भी
निकला है अभी अभी
वर्तमान के कंधों
अतीत की लाशें लाद
उन्हें जडी सुंघा रहा है धर्म
और जलती चीखों से अंटे पडे हैं राजपथ
गलियों से निकलती पुलीस
लगा रही कर्फ्यू दुर्गंध के भभकों पर
जनक्रंदन की लहरों पर
कलरव करते चले आ रहे राजनेता
जख्मों से रिसता रक्त चख रहे
बतला रहे कि खालिस मुफलिसों का है
चुल्लू भर अपने ही रक्त में डूबकर
दम तोड रहा है कवि
कि उसकी छटपटाहटों के बुलबुले ही
रह जाएंगे हमारी विरासतें ।
1991, रघुवीर सहाय की मौत पर