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स्मृतियों की सॉकल / रश्मि रेखा

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समय के कंधे पर
सिर टिकाये लेटी थी
दिसंबर की ठंडी सुबह
शहर की आपा -धापी में
सरकती जा रही थी बस
स्मृतियों की साँकल खड़काती
चिंताओं को परे धकेल
हम बना रहे थे पिकनिक का मूड
लडकियों की झरनें सी फूट पड़ती हँसी में
भरी थी ज़िन्दगी की ख़ुशबू
इस आदिम उल्लास की चंद कतरनें
याद करा रही थीं ....
अपनी उम्र की वे बीती हुई तारीखें

सड़क की हलचलों से गुजरती बस
फ़स गई थी जुलूस के जबड़े में
लड़कियों की बेपरवाह खुशियों पर
टिकी मेरी नज़र
झटक देती जनसंख्या विस्फोट और
देश की बदहाल राजनीति को कोसने का विचार

पुल पर करते ही
इक्का-दुक्का सवारियों की आवाजाही में
पसरता जा रहा था सड़क पर सन्नाटा
भागती हुई बस की खिड़की से
दिख रही थीं पेड़ों की हरी-भरी दुनिया
आपस में प्यार से बतियातीं झोपडियाँ
हमें पुकारते हुए कुओं के जगत
तालाब तट के पाखी
आ रही थी पास और पास
मेरे कविता
दूर-दूर तक फ़ैले थे फसलों से लदे खूबसूरत खेत
पगडंडियों में समाया मेरे मन का विस्तार
इसी पर घुटने के बल
खड़ी हुई होगी वैशाली की सभ्यता
फड़फड़ा रहे थे इतिहास के स्वर्णिम पन्ने
धुलती जा रही थी
समय के पाँवों पर जमी धूल