भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानी का कैनवास / रश्मि रेखा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:27, 30 सितम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रश्मि रेखा |अनुवादक= |संग्रह=सीढ़...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिकायतों पर लगातार मिट्टी डालते
पैमानों में ही गड़बड़ी लगी
पाने की कोशिश में ज्यादा खोया ही है
ज़िन्दगी के पहलू को बदल रही थी
पुराने किले की काली दीवार पर बैठी
सफ़ेद चिड़ियों की कतार
इन्हें ही सौंपे थे कभी अपने ख़्वाब
स्मृतिओं में कशिश की हल्की खरोंच
उकेर रही थी साइबेरिया के सारसों की भाषा
पटरियों पर भागती जा रही थी लोकल ट्रेन
छूटते जा रहे थे एक-एक कर पड़ाव

आज चांदनी बहुत उजली है
वर्षो से मैं चाँद नहीं देख पाई
तब कितना बड़ा होता था आकाश
और असंख्य पत्तों के बीच हमारे साथ
कैसे भागता फिरता था चाँद
आज भी उदास खड़ा है मेरा बचपन
मेरे लौटने के इंतजार में
हवा में अपना एक अलग रंग धोलती
कहाँ से आ गई बेगम अख्तर की आवाज
"कोयलिया मत कर पुकार
करेजवा में लागे कटार
बेतरतीब रंगों की बहने लगी थी नदी
बारिश की बूँदों सी टपकती
बीते वक्त की कतरनें
बना रही थीं गीली आकृतियाँ
पानी के कैनवास पर
नींद आराम से सो रही थी शोर के बीच
और मैं जाग रही थी सन्नाटे में भी चुपचाप
अपने ही घर के चौखट पर
अपना नाम पुकारती देर रात गए