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जन लेने का सफ़र / रश्मि रेखा

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कितना कुछ अनिश्चित था
वह भी जिसे लोग मान रहे थे निश्चित
समय के बदलते मिजाज को
मैंने कितना जाना क्या जाना
जानने की शुरुआत तो हो गई थी जन्म से ही
फिर भी जानने की तरह
चीज़ों को मैंने कहाँ जाना कब जाना

जितनी बार हम कुछ जान पाते है एक नया जन्म लेते हैं
उतनी ही बार मर कर

यह जानने का जुनून ऐसा क्यों हैं कि
बिगड़ैल घोड़े की तरह कभी क़ाबू में नहीं कर पाती

जबतक नीदं से बोझिल नहीं हो जातीं आँखें
 देखे बिना नहीं चल सकता कोई काम
सपने में भी पीछा करती हैं जिज्ञासा
कुछ जानने की तलब मिटाने के लिए
मैंने छान डाली न जाने कितनी कविताऍ डायरियाँ इतिहास
अनेक जीवनियाँ कथाऍ सफरनामें
समय की स्मृतियों में डूबे अतीत के भयावह सुन्दर दृश्या-लेख
बाँचती रही हूँ क़िताब और किताब के बाहर
ज़िन्दगी की खुली क़िताब
क्या यही होता हैं जानना

समय का सूचना-संजाल
हमारे कतरे हुए पंख
खुलता हुआ आसमान
जिसे घेर लेने की कोशिश में लगे
टी.वी. के सैकड़ों चैनल

आँखों को थका देने वाले दृश्यों का सिलसिला

जानती हूँ रुकेगा नहीं जान लेने का सफ़र
एक को याद करने की कोशिश में कईयों को भूल जाने का
अबसाद