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बेड़ियाँ / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन

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बीच-बीच में
निरर्थक उपमाओं की तरह
बज उठते हैं ये दिन,
भयानक जलन लिए
मुँह फेरकर
मैं उनके पास बैठी रहती हूँ
कमज़ोर बिल्लियों की तरह ये दिन
दिन-रात मेरे पैरों को छूते भटकते रहते हैं
सिर के भीतर एक गुप्त कॉरिडोर से
किन्हीं अदृश्य बेड़ियों की
झनझनाहट सुनाई देती है...

जब भी ऐसा होता है तो
मुझे बाथरूम में छिप जाना पड़ता है
असल में पानी को ही तो
पता होती है पानी की उपमा
दीवार पर टँगे आईने में
नग्नता को मैं नग्नता की ही आँखों से देखती हूँ
इन सब से थोड़ी राहत मिलती है,
दो-एक दिन बाद
पैरों को घसीटकर चलते
क़ैदियों के तलुवों के घावों में
फिर से पानी लगता है और
पानी की तरह जलन होने लगती है...